Description
पुस्तक के बारे में
आज के समय में हिन्दी साहित्य विभिन्न पगडंडियों से गुजरते हुए आगे बढ़ रहा है। आज का दौर विमर्शों का दौर है और विमर्श आधारित साहित्य के चलते कुछ विषय केन्द्र में बने हुए हैं। दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श जैसे विमर्श पहले से चले आ रहे हैं। इधर किन्नर-विमर्श जैसे विमर्शों की भी एक पहचान स्थापित हुई है। बहुत सारे साहित्यकार विमर्श आधारित साहित्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं, परन्तु इस दौर में भी पूरे समाज को केन्द्र में रखकर रचना करने वाले रचनाकार मिल ही जाते हैं। विजय कुमार सन्देश ऐसे ही रचनाकार हैं, जिन्होंने व्यापक सामाजिक सन्दर्भों को ध्यान में रखते हुए अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
विजय कुमार सन्देश मारखम कॉलेज, हजारीबाग में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं। अपने अकादमिक कार्यों के साथ-साथ उन्होंने अपने सर्जनात्मक सन्दर्भों को भी बनाए रखा है। कई पुस्तकों का सम्पादन वे कर चुके हैं। एक कुशल रचनाकार के रूप में ‘अँधेरे के विरुद्ध’, ‘उजाले की ओर’ जैसे काव्य-संग्रहों की रचना वे कर चुके हैं और यह काव्य-संग्रह प्रकाशित भी हुए हैं। इसके अतिरिक्त ‘उड़ता चल हारिल’ नाम से उनके यात्रा-संस्मरण का संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने ‘भवानीप्रसाद मिश्र : व्यक्ति और कविता’ तथा ‘उत्तरशती के हिन्दी काव्यनाटक’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं। इस तरह विजय कुमार सन्देश की प्रतिभा बहुमुखी है और रचना-कर्म में यायावरी उनकी खास आदत है।
प्रस्तुत पुस्तक विजय कुमार ‘सन्देश’ के रचना-कर्म को ध्यान में रखकर संपादित की गयी है। इसका उद्देश्य विजय कुमार ‘सन्देश’ की रचनाधर्मिता के विविध पक्षों को उभारना है, उनकी रचनाओं में अपने समय-सन्दर्भों की तलाश करनी है और उनके रचनात्मक देय को चिन्हित करना है।
‘अँधेरे के विरुद्ध’ संग्रह में अपनी बात के अन्तर्गत विजय ‘सन्देश’ अपनी विनम्रता में कहते हैं, “मैं कवि नहीं हूँ। कविता पढ़ना और कविता के सम्बन्ध में बातचीत करना पसन्द करता हूँ और यह भी कि कविता पढ़ते या बातचीत करते हुए उससे मुझे विशिष्ट स्वाद की अनुभूति होती है। साहित्य का अध्येता हूँ। बरसों से उच्चतर कक्षाओं में कविता को ‘पाठ’ की तरह पढ़ाता रहा हूँ। इस कारण कई बार मन में उठे भावों को रोक नहीं पाया। जब जैसे भाव उठे, उन्हें शब्द दे दिया। प्रस्तुत काव्य-संकलन ‘अँधेरे के विरुद्ध’ में मेरी कविताएँ नहीं मेरे वही भाव संयोजित हैं।” कवि की यह स्वीकरोक्ति उनके सहज रूप को व्यक्त करती है। कवि अपनी जन्मजात प्रतिभा के चलते कविताएँ कह रहा है। उसके यहाँ कविताएँ बन नहीं रही हैं, बल्कि स्वत:स्फूर्त ढंग से निकल रही हैं। यही विजय ‘सन्देश’ की शैली है। ‘अँधेरे के विरुद्ध’ संग्रह की कविताएँ काल से होड़ लेती कविताएँ हैं। उनमें पुरातन मनुष्य का संघर्ष है, समकालीन संघर्ष चेतना है और भविष्य के लिए सुनहरी आशाएँ हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए कवि की अलग-अलग तरह की संवेदना से परिचय मिलता है। कवि के मन में अपनी भाषा और साहित्य को लेकर जो सम्मान का भाव है, अपनी प्राकृतिक ऊर्जा को लेकर जो स्नेहासिक्त भाव है तथा अपने नायकों के प्रति जो श्रद्धा है, वह सभी कुछ इस संग्रह में निकल कर आया है। ‘युगपुरुष अम्बेडकर’, ‘क्रांतिवीर मंडेला के प्रति’ आदि जैसी कविताएँ उनके भीतर के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का परिचय देती हैं। कवि की यह क्रांतिकारिता किसी खास वर्ग के लिए नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए है। उनका यह व्यापक दृष्टिकोण उन्हें सबका कवि बना देता है।
…इसी पुस्तक से…
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