Samkalin Hindi Aadivasi Sahitya
समकालीन हिन्दी आदिवासी साहित्य

Samkalin Hindi Aadivasi Sahitya
समकालीन हिन्दी आदिवासी साहित्य

410.00

14 in stock (can be backordered)

Editor(s) — Viji. V
सम्पादक –  विजी. वी

| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 204 Pages | HARD BOUND | 2021 |
| 6 x 9 Inches | 400 grams | ISBN : 978-93-93580-60-3|

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Description

पुस्तक के बारे में

भारत में ज्ञान प्राप्ति का समय नवजागरण से शुरू होता है। अंग्रेज़ों ने स्कूलों कॉलेजों खोलकर शिक्षा को सार्वजनिक बना दिया। वहाँ से आम आदमी को शिक्षित होने में कोई पाबन्दी नहीं रह गयी। यह भी नहीं उच्च वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों ने खासकर युवा पीढ़ी ने अपने समाज को और निम्न ठहराए गये लोगों को सुधारने तथा उन्हें शिक्षित करने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। वहीं से पाप-जन्मों को पढ़ने का अवसर मिलने लगा। उनमें बुद्धि एवं विवेक का विकास होने लगा। आधुनिक शिक्षा सबको मिलने लगी। राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, आनी बसेन्ट, रानडे जैसे मनीषियों ने पूरे समाज में व्याप्त अज्ञान के अंधकार को दूर करने के यज्ञ में शामिल हो गये। उन्‍नीसवीं-बीसवीं सदी का समय सचमुच भारतीय जन जागरण का समय रहा। इस समय के कठिन प्रयत्‍नों के परिणामस्वरूप बीसवीं शताब्दी में स्त्री, दलित तथा अन्य हाशिएकृत वर्गी के जीवन यथार्थ साहित्य के विषय बन गये। आदिवासियों के जीवन में प्रकृति का बहुत बड़ा स्थान है। वे यहाँ के मूल निवासी हैं। प्रकृति की पूजा करते हुए उनकी सुरक्षा में सदा संलग्‍न वर्ग है आदिवासी। वे सबसे बड़े श्रमिक हैं और स्त्रियों के प्रति सम्मान एवं समता का भाव रखने वाले हैं। उनकी संस्कृति भी विशेष प्रकार की है जो देश के अन्य जातियों की संस्कृति से बिलकुल भिन्‍न है। आदिवासी एक नहीं अनेक समुदायों में विभक्त हैं जैसे मुण्डा, संताल, हो, खडिया, खेखार, बिरहोड, असुर आदि। इनकी भाषा में अन्तर है और आचार-विचार में भी। लेकिन एकता इस बात में है कि वे जंगल में रहने वाले हैं। यहाँ के मूल निवासी हैं। प्रकृति के साथ मिलकर जीने वाले तथा प्रकृति की सुरक्षा एवं पवित्रता को बनाए रखने वाले हैं। उपनिवेश में अँग्रेज़ों ने इनसे जंगल के अमूल्य द्रव्यों को लूट लिवाया तो नव उपनिवेश में वे पूरे जंगल, उनकी भाषा, उनकी इज़्ज़त सब कुछ लूट रहे हैं। इस लूट को आदिवासियों के पढ़े-लिखे लोगों ने पहचान लिया और वे अपनी भाषा, खान-पान, आचार-विचार, वेश-भूषा सबको याने कि अपनी अलग संस्कृति को बचाए रखने की अनिवार्यता को महसूस करते हुए वर्तमान समय के इन दुश्मनों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने तथा अपना प्रतिरोध जाहिर करने का कार्य शुरू किया। वही आदिवासी विमर्श है। अपने को सत्यापित करना तथा अपने अलग सत्य को बनाए रखने या बचाए रखने का सतर्क संघर्ष का नाम है आदिवासी विमर्श। यद्यपि 1990 के आसपास ही आदिवासी विमर्श की चर्चा हिन्दी साहित्य जगत में होने लगी थी तो भी सालों पहले ही आदिवासी अस्मिता को बनाए रखने का संघर्ष शुरू हो चुका था, बिरसा मुण्डा जैसे आदिवासी मनीषी के नेतृत्व में। पर साहित्य के क्षेत्र में इस विमर्श की जीवन्त चर्चा 1990 के बाद ही होने लगी है। पर इसकी जड़ें काफी पुरानी हैं। कुछ मानव प्रेमी मनीषियों ने आदिवासियों के जीवन यथार्थ को रचना का विषय बनाकर उनके साथ की जाने वाली अमानवीय वृत्तियों के खिलाफ अपनी असहमति जता दी है। रामचीज सिंह वल्लभ का ‘वन विहंगिनी’ (1909), रामानन्द शर्मा का ‘कोरा कुमारी’ (1930), योगेन्द्र सिंह का ‘वन लक्ष्मी’ और ‘वन के मन में’ (1950), 1948 में वृन्दावनलाल वर्मा का ‘कचनार’, 1970 में रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ’, ‘धरती मेरा घर’, देवेन्द्र सत्यार्थी का ‘रथ के पहिए’ राजेन्द्र अवस्थी का ‘जंगल के फूल’, ‘सूरज किरन की छाँव’, फणीश्‍वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ जयप्रकाश भारती का ‘कोहरे में खोये चाँदी के पहाड़’ आदि इस दौर की रचनाएँ हैं।
– डॉ. एन. मोहनन

Additional information

Weight 400 g
Dimensions 9.5 × 6.5 × 0.5 in
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