Prachin Chintan aur Aadhunik Srijan
प्राचीन चिंतन और आधुनिक सृजन
₹195.00 – ₹375.00
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Author(s) — Rajkumar Sharma
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Description
पुस्तक के बारे में
सृष्टि के उत्थान और पतन ने कई वास्तविकताओं से पर्दा उठाया है। सोवियत रूस की श्रेष्ठ मानी जाने वाली साम्यवादी व्यवस्था लाखों लोगों के रक्त से सनी थी और अन्तत: असत्य का बोझ न सहने के कारण चरमरा गई। यही हाल कुछ अन्य राष्ट्रों का भी हुआ। प्रश्न यह नहीं है कि कौन-सी व्यवस्था श्रेष्ठ है। प्रश्न यह है कि किसी भी व्यवस्था में व्यक्ति भ्रष्ट और आततायी क्यों बन जाता है। वह सत्ता के सुख को शाश्वत और सिर्फ अपने लिए क्यों समझने लगता है? वह प्रकृति के अटल नियम ‘परिवर्तन’ को क्यों भूल जाता है। केवल परिवर्तन ही तो स्थायी
बसवेश्वर ने कहा है– “सबका जन्म एक ही ढंग से होता है। इच्छा, आहार, सुख और विषय सबके लिए सामान है।… उच्च कुलीन की क्या पहचान है? एक मनुष्य लोहा पीटता है और लोहार कहलाता है। दूसरा कपड़े धोता है और धोबी कहलाता है। एक सूत फैलाता है और जुलाहा कहलाता है। दूसरा पुस्तक पढ़ता है और ब्राह्मण कहलाता है। क्या उनमें से किसी का जन्म कान के रास्ते से भी हुआ था?… केवल वही उच्च कुल का है जो ईश्वर की पूजा करना जानता है।… “चांडाल वही है जो दूसरों की हिंसा करता है। अस्पृश्य वही है जो अभक्ष्य पदार्थों को खाता है। जात-पाँत क्या चीज है? उन लोगों की जाति क्या है? वास्तव में उच्च कुलीन ईश्वर के वह भक्त हैं जो प्राणि मात्र का कल्याण चाहते हैं।…वही अस्पृश्य है जो माता-पिता को गाली देता है। वही अन्त्यज है जो परोपकार में विघ्न डालता है। ईश्वर-भक्तों की हत्या करने वाला ही अस्पृश्य है। वही अस्पृश्य है जो धन के लिए दूसरों के प्राण लेता है। वही अन्त्यज है जो मन से पर-स्त्री की इच्छा करता है। वही अन्त्यज है जो अधर्म करता है। हे देव! इस प्रकार के अन्त्यजों से तो सारा गाँव भरा पड़ा है। किन्तु गाँव से दूर रहने वालों को अन्त्यज कहकर पुकारा जाता है।”
दक्षिण के ही पन्द्रहवीं सदी के भक्त कवि वेमना ने जाति-भेद की तीव्र निन्दा इन शब्दों में की है–यदि हम चारों ओर देखें तो पायेंगे। मनुष्य जन्म से समान हैं / एक ही भ्रातृ सम्प्रदाय के हैं / और भगवान की दृष्टि में समान हैं। / भोजन, जाति या जन्म-स्थल से मनुष्य की योग्यता नहीं बदल जाती / तब क्यों जाति को इतना महत्त्व देते हो? / यह तो केवल मूर्खता का अविरल प्रवाह है। / निकृष्ट-से-निकृष्ट जाति से भी बदतर है वह है, जो अपनी तुलना में दूसरों को शूद्र मानता है। उसे नरक से कभी मुक्ति मिलेगी नहीं। जात-पाँत के झगड़े सब झूठे हैं। सब जातों की जड़ एक ही है / कौन इस संसार में निर्धारित कर सकता है कि / किसकी प्रशंसा की जाये और किसकी निन्दा? / क्यों हम किसी अछूत से घृणा करें, जब वह भी हमारी तरह पैदा हुआ है, / उसमें भी वही हाड़ मांस है, / उसकी कौन-सी जाति है, जो हम सबके अन्दर बसता है?
…इसी पुस्तक से…
दरअसल कोई भी चीज, चाहे वह परम्परा हो या प्रगतिशील आधुनिकता, शून्य में पैदा नहीं होती। हमारी हर सोच हमारे समाज के ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य विकास की एक निश्चित मंजिल की देन होती है। इस प्रकार परम्परा और आधुनिकता या परम्परा और प्रगतिशीलता आपस में कोई धुर विरोधी चीजें नहीं हैं। गुरुवर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहा करते थे कि परम्परा का शाब्दिक अर्थ है, “एक का दूसरे को, दूसरे का तीसरे को दिये जाने वाला क्रम।” उन्होंने परम्परा और आधुनिकता की हमारे दो पैरों से तुलना की है। चलते समय एक पैर हवा में होता है और दूसरा जमीन पर रखना पड़ता है। जमीन पर टिका पैर परम्परा है और आगे बढ़ने वाला पैर आधुनिकता है। दोनों पैर जमीन पर रखे होंगे तो हम आगे नहीं बढ़ पायेंगे और दोनों पैर हवा में होंगे तो भी नहीं चल पायेंगे। इस प्रकार निरन्तरता के अर्थ में देखें तो नया और पुराना परस्पर सहयोगी प्रक्रियाएँ हैं लेकिन पुराने को हम ज्यों-का-त्यों ‘नया’ नहीं बना सकते। नयी चीज नये ढाँचे, नये सम्बन्ध, नये मूल्य, नयी जीवन-पद्धतियाँ बनाने के लिए हमें ‘पुराने’ के अन्दर मौजूद गैर-प्रगतिशील, गैर-रचनात्मक एवं जनविरोधी पक्षों को छोड़ना और बदलना पड़ेगा। नये और पुराने का सहयोग और निरन्तरता असल में उनके अन्दर निहित प्रगतिशील तत्त्वों से जुड़ी है। यही प्रगतिशीलता पुरानी परम्पराओं के मानवीय सारतत्त्व को निरन्तर आधुनिक रूप प्रदान करती जाती है जिससे हर परिस्थिति में उसकी सामाजिक सार्थकता बनी रहती है।
…इसी पुस्तक से…
अनुक्रम
प्राक्कथन 1. भारतीय चिन्तन की प्राचीन परम्परा और आज के सवाल 2. मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में सांस्कृतिक सामरस्य की परम्परा और उसका सामाजिक आधार 3. भारतीय साहित्य में भक्ति-आन्दोलन का दलित सन्दर्भ 4. मानवीय मूल्यों का सवाल और उपभोक्ता संस्कृति 5. जंजीरों में किताब 6. नयी दुनिया-पुराने लोग : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 7. नागार्जुन होने का अर्थ 8. केदारनाथ अग्रवाल : दुर्लभ सहजता का कवि 9. केदार की वैचारिक दृष्टि और भाषा-संवेदना 10. नयी काव्य-दृष्टि : आधुनिक-बोध और मानव-मूल्य 11. प्रेमचन्द की यथार्थ-दृष्टि और भाषा-संवेदना 12. जनवादी कहानी से जुड़े कुछ सवाल 13. जनवादी चेतना के कथाकार : शानी 14. तुलसी का पुनर्मूल्यांकन : एक जरूरी पहल 15. हिन्दी कविता : पिछले दस वर्ष 16. साम्प्रदायिक ़फसादात के मर्मभेदी अ़फसाने 17. गीत-कवि रमेश रंजक 18. दूसरे लोकतन्त्र की तलाश में 19. भीष्म साहनी की अन्तिम कहानी ‘मैं भी दीया जलाऊँगा, माँ’ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 20. गिरिजाकुमार माथुर की समाजोन्मुख काव्य-दृष्टि 21. इस्मत चु़गताई की कहानी ‘मु़कद्दस फर्ज़’ और आज का सच 22. संस्कृत साहित्य में साम्राज्यवाद-विरोध की परम्परा और भगत सिंह 23. उर्दू अदब के सरोकार : आज के दौर में एक बेहद ज़रूरी किताब 24. आत्मीय संस्मरणों में रची-बसी एक उदात्त जीवन-गाथा 25. जल संकट की विकरालता से जूझते किसान की प्रामाणिक संघर्ष-गाथा 26. सामाजिक सोच और व्यवहार में बदलाव के लिए जूझती कहानियाँ 27. बेहतरीन कहानियों का एक नायाब संकलन : कथा कहानी-1
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