Author(s) — Narmedshwar
लेखक – नर्मदेश्वर
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 5.5 x 8.5 inches |
₹195.00 – ₹275.00
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 5.5 x 8.5 inches |
घंटी का बजना बन्द हो गया था। पर अमावस अपनी धुन में बदहवाश बढ़ता जा रहा था। करवन और मकोय की कंटीली झाड़ियों के पार जाकर उसने बाल्टी नीचे रख दी। कान लगाकर सुना तो छपाक की आवाज़ आई और फिर शान्ति छा गई। दो-चार हाथ के फासले पर यह एक लेवाड़ था जहाँ भैंसों ने लोट-पोट कर गड्ढा बना दिया था। गड्ढे में जमा बरसाती पानी कीचड़ बन गया था। कीचड़ में पैर रखते ही घुटनों तक धँस गया। एक पैर उठाता तो दूसरा और नीचे धँस जाता। सँभलने की कोशिश में वह लड़खड़ाकर भैंस की पीठ पर जा गिरा। भैंस की चौड़ी चिकनी देह पर पसली की हड्डियाँ साफ उभर आई थी। अमावस अपने हाथों से भैंस का अंग-प्रत्यंग टटोलने लगा। उसने अपना हाथ भैंस की गरदन पर बढ़ाया ताकि गले में लटकती घंटी छू सके। घंटी कीचड़ में डूबी थी। कीचड़ पोंछकर उसने घंटी को हिलाकर देखा। यह घंटी उसने तिलौथू मेले मे खरीदी थी। यह घंटी नहीं होती तो अमावस अपनी भैंस तक नहीं पहुँच पाता। खुशी के मारे उसने घंटी को अपने होंठो से चूम लिया। सींग टटोलने के बाद वह बिल्कुल निश्चिन्त हो गया। यह उसकी भुअरी ही थी। पर यह क्या? इसकी टाँग सींग में कैसे फँस गई?
…इसी पुस्तक से…
‘नील का दाग’ की अधिकांश कहानियाँ ‘परिकथा’ के चौपाल स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित और चर्चित हो चुकी हैं। चूँकि चौपाल का सम्बन्ध कहानी की वाचिक परम्परा से है इसलिए ये कहानियाँ कभी बतकही, कभी गप-शप, कभी नोक-झोंक, कभी रिपोतार्ज तो कभी वार्ता की तरह लग सकती है। लेखक का लगातार तीन वर्षों से इस स्तम्भ के लिए लिखते रहना इस बात का प्रमाण है कि गाँव की कहानियों के पाठक आज भी विद्यमान हैं। अनुभव से समृद्ध ये कहानियाँ गाँव की संघर्षशील चेतना से लैस हैं और पाठकों को कथारस में बाँधे रखती हैं। गाँधी जी के चम्पारण आन्दोलन के शताब्दी वर्ष के अवसर पर लिखी गयी कहानी ‘नील का दाग’ अँग्रेज निलहों के बर्बर उत्पीडऩ की याद फिर से ताजा करने के साथ-साथ उनकी उपनिवेशवादी और नस्लवादी सोच को भी उजागर करती है। ‘धामिन’ जनेऊधारी पंडित की छद्म नैतिकता का पोल खोलती है। तथाकथित सभ्य समाज की नजर में मूर्ख समझे जाने वाले ग्रामीण प्रतिभाओं को दाद देती कहानी ‘मियाँ देहाती’ का व्यंग्य बेधक है। ‘घंटी’ में अन्धा अमावस अपनी खोयी हुई भैंस का पता उसकी घंटी की आवाज सुनकर लगा लेता है। ‘कंघी’ को प्रख्यात आलोचक सुरेन्द्र चौधरी कथालेखन की एकरूपता तोडऩे वाली कहानी मानते हैं। ‘नील का दाग’ की कहानियाँ ग्रामीण जीवन, परिवेश और जुझारूपन के संस्कारों का जीवन्त दस्तावेज हैं।
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