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#मकसीम गोरिकी का परिचय
मकसीम गोरिकी का असली नाम था— अलिक्सेय मकसीमअविच पिशकोफ़। उनका जन्म 16 (28) मार्च 1868 को रूस के नीझनी नोवगरद शहर में एक गरीब परिवार में हुआ था। वे प्रसिद्ध सोवियत लेखक, कवि, कथाकार, नाटककार, पत्रकार और राजनीतिक लेखों के लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। शुरू में उन्होंने कहानियाँ, गीत और लघु उपन्यास लिखे। 1901 तक वे क्रान्तिकारी समाजवादी विचारधारा के सम्पर्क में आ चुके थे। अपने इन विचारों को उन्होंने अपने नाटकों में पिरो दिया। वे ज़ार की सत्ता की विरोधी सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गये और सरकार विरोधी गतिविधियों में भाग लेने लगे। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से रूसी ज़ारशाही का विरोध करना शुरू कर दिया। अपनी रचनाओं में वे ऐसे नये समाज की कल्पना करने लगे, जो हर प्रकार के शोषण से मुक्त होगा। उन्होंने एक ऐसे नये मनुष्य की कल्पना की, जो निडर और आज़ाद होगा और उच्चतम बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं से युक्त होगा। उन्होंने समाजवादी यथार्थवाद अवधारणा की परिकल्पना की। मकसीम गोरिकी को कोई विदेशी भाषा नहीं आती थी, फिर भी उन्होंने अपने जीवन के 18 वर्ष विदेश में बिताये, जिनमें 15 वर्ष तक वे इटली में रहे। अभी तक 60 खण्डों में मकसीम गोरिकी की रचनावली प्रकाशित हो चुकी है, लेकिन उनकी बहुत-सी रचनाएँ और पत्र अभी तक अप्रकाशित हैं। 1902 से 1921 तक गोरिकी ने तीन प्रकाशन भी चलाये। उनके प्रकाशनों के नाम थे ज़्नानिए (ज्ञान), पारुस (बादबान या पाल) और व्स्येमीरनया लितिरातूरा (विश्व साहित्य)। 1917 की क्रान्ति के बाद मकसीम गोरिकी को जान बचाने के लिए रूस छोड़कर इटली भागना पड़ा, जहाँ से वे 1932 में ही वापिस सोवियत संघ लौटे। सोवियत रूस में वापिस लौटकर उन्होंने सोवियत लेखक संघ की स्थापना की और अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ शुरू कीं। 18 जून, 1936 को मास्को के अंचल में एक गाँव में उनका देहान्त हो गया।
#मुनीश नारायण सक्सेना
मकसीम गोरिकी के उपन्यास ‘माँ’ को हिन्दी में अनुवाद करने वाले अनुवादक मुनीश नारायण सक्सेना का जन्म 22 जून 1925 को लखनऊ में हुआ। लखनऊ यूनिवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वे कम्युनिस्ट बन गये और वहीं से एम.ए. करके वे कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर के रूप में मुम्बई में काम करने लगे। मुम्बई में उन्होंने ब्लिट्ज साप्ताहिक अख़बार के हिन्दी और उर्दू के संस्करण शुरू किये और उनका सम्पादन किया। बाद में उन्होंने दिल्ली से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अख़बार ‘जनयुग’ भी शुरू किया। उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रीय श्रम संस्थान की अकादमिक पत्रिका का सम्पादन किया। 1981 से 1984 तक मुनीश नारायण सक्सेना मास्को में रहे। इन चार सालों में ही उन्होंने अलिकसान्दर पूश्किन, फ़्योदर दस्तोएवस्की और निकअलाई गोगल और मकसीम गोरिकी के उपन्यासों व कहानियों के अनुवाद किये। ‘माँ’ का अनुवाद उन्होंने इससे भी पहले तब किया था, जब वे दिल्ली में रह रहे थे। मास्को का मौसम उन्हें रास नहीं आया। इसलिए जुलाई 1985 में वे दिल्ली वापिस लौट गये। दिल्ली में 08 अगस्त 1985 को हृदयाघात से मुनीश नारायण सक्सेना का देहान्त हो गया।
उन कुछ किताबों की सूची जिनका अनुवाद मुनीश नारायण सक्सेना ने किया– 1. मकसीम गोरिकी का उपन्यास ‘माँ’। 2. मकसीम गोरिकी की आत्मकथा का पहला हिस्सा ‘बचपन’। 3. मकसीम गोरिकी का उपन्यास ‘वे तीन’। 4. फ़्योदर दस्तोएवस्की का उपन्यास ‘अपराध और दण्ड’। 5. फ़्योदर दस्तोएवस्की का उपन्यास ‘बौड़म’। 6. इवान तुर्गेनिफ़ का उपन्यास ‘कुलीन घराना’। 7. निकअलाय गोगल की ‘कहानियाँ और लघु उपन्यास’। 8. अलिकसान्दर पूश्किन का उपन्यास ‘दुब्रोवस्की : बदला’। 9. सिर्गेय अलिक्सेयेफ़ की ‘रूसी इतिहास की कहानियाँ’। 10. गिओर्गी फ़्रान्त्सोफ़ की पुस्तक ‘दर्शन और समाजशास्त्र’। 11. निकअलाय अस्त्रोवस्की के उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ का ‘दरो रसाल की आज़माइश’ नाम से उर्दू में अनुवाद।
इनके अलावा बच्चों की कुछ किताबों के भी अनुवाद किये।
पुस्तक के बारे में
मकसीम गोरिकी एक बढ़ई के पुत्र थे और सड़क पर ही उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई थी। छोटी उम्र में ही उन्होंने बेहद सहज और सरल रूसी भाषा में रूस के मज़दूरों और किसानों के लिए लिखना शुरू कर दिया, जो बेहद कम पढ़े-लिखे थे। इसलिए उनकी रचनाओं में किसानों और मज़दूरों का दर्द और पीड़ाएँ उभरकर सामने आती हैं। मज़दूर-वर्ग की छोटी-छोटी ख़ुशियों और उत्सवों का भी मकसीम गोरिकी ने बड़ा मनोहारी वर्णन किया है। 1905 में रूस में ज़ार की सत्ता के ख़िलाफ़ पहली असफल मज़दूर क्रान्ति हुई। क्रान्ति के तुरन्त बाद गिरफ़्तारी से बचने के लिए मकसीम गोरिकी अमेरिका चले गये थे। 1906 में अमेरिका में ही उन्होंने ‘माँ’ नामक यह उपन्यास लिखा। यह ऐसा पहला उपन्यास था जिसमें समाजवादी यथार्थवाद का चित्रण किया गया है यानी यह बताया गया है कि समाज और मनुष्य एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज में मनुष्य ही महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि समाज मनुष्यों से बनता है, न कि समाज से मनुष्य पैदा होता है। इसलिए समाज को मनुष्यों के अनुकूल होना चाहिए। समाज में सभी मनुष्यों को समान सुविधाएँ, समान अधिकार और समान न्याय मिलना चाहिए। यही समाजवाद का मुख्य उद्देश्य है। ‘माँ’ नामक अपनी इस रचना में गोरिकी ने इसी समाजवादी विचारधारा को अपने नज़रिये से प्रस्तुत किया है। समाजवाद का यह विचार रूस में ज़ार की तत्कालीन सत्ता-व्यवस्था के पूरी तरह से ख़िलाफ़ था। ज़ार की सत्ता-व्यवस्था में कुछ ही कुलीन परिवार थे, जो पूरे रूस पर शासन करते थे। रूसी बुर्जुआ वर्ग और पूँजीवाद सत्ता पर हावी होने की कोशिश कर रहा था। 1861 में रूस में भूदास प्रथा खत्म होने के बाद कृषिदासों के रूप में काम करने वाले किसान अपने ज़मींदार मालिकों से मुक्ति पा चुके थे, लेकिन उन्हें खेती करने के लिए ज़मीन नहीं मिली थी। रूस में तब तक पूँजीवाद और औद्योगीकरण का भरपूर विकास भी नहीं हुआ था। इसलिए ज़्यादातर पूर्व भूदास परिवारों की जीवन-स्थितियाँ और मुश्किल हो गयी थीं। उनके पास पेट पालने के लिए कोई साधन नहीं था। कुछ लोगों को कारखानों में मज़दूरी की नौकरी मिल गयी थी, लेकिन वेतन इतने कम थे कि वे बड़ी मुश्किल से जीवन-यापन कर पाते थे। ‘माँ’ उपन्यास में मकसीम गोरिकी ने इन स्थितियों से मुक्ति पाने का रास्ता दिखाया है और यह बताया है कि समाजवाद ही हर तरह के शोषण से जनता की मुक्ति का रास्ता है।
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