Autor(s) — Vijay Sharma
लेखिका — विजय शर्मा
| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 192 Pages | 5.5 x 8.5 Inches | 350 grams |
| Book is available in PAPER BACK & HARD BOUND |
₹240.00 – ₹375.00
10 in stock
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‘अनुवाद के सन्दर्भ में दो बातें मेरे खिलाफ रखी जा सकती हैं– एक किताब के चुनाव से सम्बन्धित है, दूसरी जैसे मैंने अनुवाद किया है उससे जुड़ी है। एक समूह के लोग कहेंगे मुझे इस खास लेखक को नहीं चुनना चाहिए था, दूसरा समूह कहेगा कि मुझे उसको इस तरह अनुवादित नहीं करना चाहिए था।’
– निकोलस पेरो ड’, ब्लान्कोर्ट
जब लोगों को पता चलता है कि मैं अनुवाद करती हूँ तो उनकी पहली प्रतिक्रिया बड़ी ठंडी होती है, ‘अच्छा अनुवाद करती हैं।’ मतलब खुद नहीं लिखती हैं। उनकी आवाज में मेरे लिए बड़ी लाचारगी, बड़ी बेचारगी होती है। असल में ये लोग किसी बुरी भावना के तहत ऐसा नहीं कहते हैं। इन लोगों के कहने का मतलब इतना ही होता है कि जब आप खुद लिखने में सक्षम हैं, मूल लेखन कर सकती हैं, तो दूसरे के लिखे का अनुवाद करके क्यों अपना समय और शक्ति जाया करती हैं। लिखना न आता हो, सृजन की क्षमता न हो तो भले अनुवाद कर लो, पर जब रचने का गुण है तब क्यों यह काम करना। असल बात यह है कि अक्सर लोग अनुवाद को दोयम दर्जे का काम मानते हैं। जो लोग ऐसा कहते-मानते हैं उनमें से ज्यादातर लोग खुद कुछ नहीं पढ़ते-लिखते हैं। यदि आप पढऩे-लिखने वाले हैं तो आपने अवश्य अनुवाद के द्वारा अपने ज्ञान में वृद्धि की होगी, अनुवाद पढ़कर साहित्य का लुफ़्त उठाया होगा। ऐसा हो नहीं सकता है कि आप पढऩे में रुचि रखते हों और आपने अनुवाद न पढ़ा हो। अगर आप पढ़ते हैं, तब आप ऐसा कहने से पहले जरूर एक बार सोचेंगे।
आज तक मैंने स्वयं न मालूम कितने अनगिनत अनुवाद पढ़े हैं। बाँग्ला साहित्य से मेरा परिचय अनुवाद द्वारा ही हुआ। शरदचन्द, बंकिमचन्द, विमल मित्र, शंकर, तस्लीमा नसरीन, विश्वगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर को पढ़ा और बाँग्ला साहित्य का आनन्द लिया। माधवी कुट्टी, एम. टी. वासुदेवन नायर, वी. शंकर कुरूप, शिव शंकर पिल्लै, तकशी, ओ. वी. विजयन, एम. मुकुन्दन, सारा रॉय को अनुवाद के माध्यम से ही जाना-समझा। यदि किसी ने अनुवाद न किया होता तो न जाने मुझ जैसे कितने लोग मलयालम साहित्य की निधि से अपरिचित रह जाते। किसी ने अनुवाद न किया होता तो गोर्की की ‘माँ’ से मेरा परिचय कैसे होता? गोर्की की ‘माँ’ से मैं इतनी अधिक प्रभावित हुई थी कि इसे मैंने जबरदस्ती अपनी छोटी बहन को दिया। वह पढऩे में रुचि नहीं रखती थी। मेरे जबरदस्ती करने पर उसने पढऩा शुरू किया और मुझे यह जान-देखकर आश्चर्य हुआ कि शुरू करके उसने इसे छोड़ा नहीं बल्कि पूरी किताब पढ़ी। वह अभिभूत और उद्वेलित थी इसे पढ़कर।
चेखव को उसके देश के बाहर कौन जानता यदि उसके काम का अनुवाद न हुआ होता। रवीन्द्रनाथ टैगोर, गैब्रियल गार्शा मार्केस को नोबेल कदापि न मिलता यदि इनकी रचनाओं का इंग्लिश में अनुवाद न हुआ होता। के. एम. मुंशी, महाश्वेता देवी, टॉल्सटॉय, सिमोन द बोउवार, ज्यॉ पॉल सात्र्र, फ्लॉबेयर, गोगोल, अरिओला, कामू इनमें से कोई भी तो मेरी मातृभाषा हिन्दी में नहीं लिखता है। इनके काम का यदि कुछ लोगों ने मेरी मातृभाषा हिन्दी और मेरी दूसरी भाषा इंग्लिश में अनुवाद न किया होता तो क्या कभी मुझे इनका स्वाद मिलता? यदि अनुवादकों ने इन्हें इंग्लिश या हिन्दी में अनुवादित न किया होता तो क्या मैं इनका आनन्द कभी उठा सकती थी? यदि अनुवाद न होता तो क्या बाइबिल पूरी दुनिया में जानी जाती– ईसाइयत का इतना प्रचार-प्रसार सम्भव था? अगर मैक्समुलर ने भारतीय ग्रन्थों का जर्मन में तर्जुमा न किया होता तो यूरोप को भारत के साहित्य की जानकारी होती? अत: अनुवाद के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। यह साहित्य की समृद्धि का एक प्रमुख स्रोत है।
…इसी पुस्तक से…
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