Description
पुस्तक के बारे में
हमारे कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने कहा कि– “मेरी कविताएँ उबड़-खाबड़ हैं।” दूसरे ने कहा कि– “कंटीली लगती हैं और चुभती हैं।” उस समय उनकी टिप्पणी से थोड़ी तकलीफ हुई। लेकिन, चार-पाँच वर्षों बाद विशेषतः पाठकों, छात्रों, शोधार्थियों आदि से प्राप्त प्रतिक्रिया मुझे संतोष देने लगी। अब मैं जान गया, धीरे-धीरे ही सही कविताएँ पाठकों तक पहुँचने लगी और वे कविता के नये सौन्दर्य-बोध को पहचानने लगे हैं। संग्रह का मराठी, अँग्रेजी और संताली में अनुवाद हुआ है और अन्य कई भाषाओं में कविताओं का अनुवाद, तो संभवतः इसलिए कि यह उबड़-खाबड़पन, कंटीलापन, चुभन के दंश आदि एक आदिवासी-कवि की संभवतः पहचान बन गयी हैं। आदिवासी-जीवन की अनुभूतियाँ हैं और उस कविता का सौन्दर्य हैं। शायद जंगल के कवि ने अपने जीवन-अनुभव व परिवेश के ऐसे शब्द-चित्र उकेरे कि पाठक को, कवि के जीवन-पथ की विकट, जटिल और विपरीत पगडंडी में चलने के कष्टों का एहसास हुआ। अब वह भी शायद, अपने जीवन के विपरीत क्षणों में इन कविताओं से कहीं प्रेरित होता होगा। जिसे राजपथ में चलने का मौका ही नहीं दिया गया तो वह उसका वर्णन कैसे करता? धक्के देकर उसे पगडंडी पर दौड़ने, भागने के लिए बाध्य किया गया, विवश किया गया तो निश्चय ही वह उबड़-खाबड़पन और कंटीले रास्ते की ही बात करेगा। जिसे जीवन भर मिर्ची खिलाई गयी, उससे मिठास के वर्णन की आशा क्यों करते हैं? संवेदनशील पाठक, विद्वान, समीक्षक, प्रकाशक सभी आदिवासी-जीवन से जुड़े अनुभवों की उपादेयता आदि को अब विभिन्न सन्दर्भों में उदारतापूर्वक समझने लगे हैं। जैसे हाल में कुछ युवा आदिवासी-रचनाकारों को, कुछ प्रकाशकों ने प्रमुखता के साथ, प्रकाशित किया और जिस तरह से पाठकों ने उनका स्वागत किया है, यह भविष्य के लिए शुभ-संकेत प्रतीत होता है। फिर भी आम जनता के बीच आदिवासी की छवि बेहतर व स्वच्छ नहीं है। मतलब एक लंबा संघर्ष शेष है।
– महादेव टोप्पो
अधिकांश विद्वानों और राष्ट्रीयता का चोला ओढ़े कुछ सामाजिक, राजनैतिक विचारधाराएँ इन समाजों का धर्मान्तरण करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं लेकिन इन्हें सामाजिक बराबरी का दर्जा देने के लिए कतई तैयार नहीं हैं और आर्थिक दृष्टि से उनके संसाधनों के दोहन से भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। इसी तरह से अन्य विचारधारा वाले इन्हें अपने-अपने हिसाब से देखने की, पारिभाषित कोशिश करते रहे हैं। जी.एस. घुर्ये जैसे विद्वान् इन्हें पिछड़ा हिन्दू साबित करने पर जोर देते हैं तो राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् हिमाचल के आदिवासियों के इतिहास को एक महाआख्यान से जोड़कर देखते हैं। इन सबसे अलग एक और दृष्टि है जो तथाकथित पश्चिमी दुनिया से प्रभावित है जो आदिवासी समाज की प्राकृतिक उन्मुक्तता में रोमैंटिकता की तलाश करती रही है।
आदिवासी लेखन के बीच गैर-आदिवासियों द्वारा एक सवाल ‘आदिवासी’ और ‘जनजाति’ शब्द को लेकर भी उठाया जाता है। ‘जनजाति’ शब्द संवैधानिक है लेकिन आदिवासी लेखक ‘आदिवासी’ शब्द को बहुत ही स्वाभाविकता के साथ आत्मसात किये हुए हैं। दरअसल आदिवासी शब्द में इस देश का आदिम निवासी होने का स्वभावतः जो अर्थ निहित है वह जनजाति शब्द से स्पष्ट नहीं होता है। हाँ आर्य सभ्यता के लोगों को यह शब्द जरूर खटकता है क्योंकि एक बृहद समाज, जो इस देश के अनेक हिस्सों में अलग-अलग समूहों, संस्कृतियों और भाषाओं में विभाजित है, आदिवासी होने से एक अल्प लेकिन प्रभुत्वशाली समाज के लिए स्वतः यह बात सिद्ध हो जाती है कि वे इस देश के मूलनिवासी नहीं हैं। इससे न सिर्फ उनके वर्चस्व के पीछे की साजिशों का पता चलता है बल्कि दूसरी तमाम जातियों, धर्मों जिन्हें वे बाहरी कहकर निशाना साधते हैं, तर्क कमजोर हो जाता है। इसके साथ ही इस देश की उन हजारों जातियों के लिए भी समस्या पैदा होती है जो आर्येतर हैं, कि क्या वे इस देश की मूलनिवासी नहीं हैं? वस्तुतः जिन जातियों का पहले ही हिन्दूकरण हो चुका है लेकिन उन्हें उच्चवर्णीय हिन्दुओं के सामान दर्जा नहीं मिला…
… इसी पुस्तक से…