Author(s) — Ram Sharma
लेखक — राम शर्मा
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | Total 160 Pages | 2022 | 6 x 9 inches |
| Will also be available in HARD BOUND |
₹195.00
| Will also be available in HARD BOUND |
‘बीबी, रंग का दिन से क्या, जब दिल चाहे, लगाओ’ और सुक्को सचमुच चुटकी-भर लाल गुलाल ढाक के पत्ते में लपेटे और चीरा के कोने में बाँधे कमर में खोंसे घूम रही थी। गाँठ खोल उसने मियाँ जी को चुटकी-भर गुलाल माथे पर लगा दिया। गुलाल थोड़ा माथे पर चिपका थोड़ा गिर के दाढ़ी में उलझ गया, पर यह क्या सुक्को ने हाथ पर रखा ढाक का सूखा पत्ता मियाँ जी के आगे कर दिया जिसमें मुश्किल से दो चुटकी गुलाल रहा होगा। ऊसुप के आगे झुकी हुई सुक्को खड़ी थी हाथ से हथेली पर गुलाल रखे हुए। गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, अँगिया में कसे उरोज, उनके ऊपर झूलता काँसे का कंठा, चमकीले दाँत दोनों ओठों के बीच से झाँकते हुए और इसके ऊपर पसीने की हलकी महक और तेज हो चली साँसों की गर्माहट में मियाँ जी तो खो गये। ‘अरे लेउ न’, थोड़ा फुसफुसाये, ऊँचे स्वर में सुक्को बोली, तो मियाँ जी का हाथ यक ब यक आगे बढ़ गया और ऊसुप ने दायें हाथ से अँगूठे और बीच वाली उँगली के बीच जरा-सा गुलाल पकड़ा और सुक्को के माथे पर नीचे से ऊपर को लगाया। मियाँ अपना अँगूठा ले तो जाते बालों तक मगर तब तक गुलाल झड़कर नीचे आने लगा था और सुक्को भी तनकर खड़ी हो गयी थी और गुलाल झड़कर बिल्कुल उसकी नाक पर गिर रहा था और उसकी नाक भी लाल हो गयी थी। सुक्को के मुँह के भाव पढ़ने की कोशिश तो मियाँ कर रहे थे और सुक्को को भी यह स्पर्श सुखद और आनन्द-प्रद लगा था, मगर वह इस छप्पर से जहाँ मियाँ जी बैठे थे, अन्दर चली गयी और मियाँ जी कुछ खटर-पटर की आवाजें सुनते रहे। कोठे से सुक्को निकली तो हाथ में एक कुल्हड़ था जिसमें एक गुड़ की डली डालकर पानी में घोल दी थी। मियाँ जी ने यह शरबत पिया तो बहुत तृप्ति मिली।
…इसी पुस्तक से…
पंडित शिव प्रसाद की दूसरी सन्तान एक लड़की पैदा हुई। वे और चम्पा खुश थे, बस बच्ची की दादी अनमनी रहती थी। फिर भी बच्ची को ज्यादातर वक़्त दादी ही सँभाले रहती थी। अब सास के लिए एक ही तो बहू और वह भी सिर्फ एक बच्ची की माँ। अड़ोस-पड़ोस की डोकरी चार-छः बच्चों से घिरी रहती। एक बहू का जापा निपटता छह महीने में दूसरी तैयार। यह हाल तो तब जब पाँच बेटों में से दो के ब्याह का तो कोई दूर-दूर तक नाम नहीं था। निठल्लों को भी कोई अपनी बेटी दे तो कैसे। गाँव में खेती-किसानी के अलावा ऐसे लोग थे ही कितने जो कुछ कमा के बच्चों का पेट भर सकें। घरों में दादियाँ लड़कियों को भी पाल ही लेती थीं। घर में लड़की होगी तो एक बहू लाने की बात भी पक्की। तुम्हारी लड़की किसी दूसरे के घर जायेगी, दूसरे की तीसरे के घर जायेगी और तभी तो तीसरे से तुम कह पाओगे कि अपनी लड़की हमारे घर में दे। और क्या बामन बनिया की रीति-रिवाज हैं, कोई राजस्थान के मैना टेना या आगरा के मियाँ थोड़े ही हैं कि तेरी लड़की मेरे घर और मेरी लड़की तेरे घर और बस हो गया साटा-पाटा। ना जी ना बाकायदा ब्याह होवे है कम-से-कम तीन गोत्र बचा के। मगर बड़ी पंडितायिन के यहाँ तो बात ही दूसरी थी। शिव प्रसाद के ब्याह में तो शगुन के ग्यारह रुपये मिले थे, लड़का पढ़ता जो था। तब पंडितायिन बहुत खुश थीं गाँव में पहली बार किसी को ऐसा दान दहेज़ मिला था। मगर अब बहू की गोद में यह लड़की दस-बारह साल बाद फिर इसके लिए दहेज़ जुटाना।
पंडित शिव प्रसाद के दिमाग में अपनी माँ की तरह गैर-जरूरी चिन्तायें न थीं। उनका आचार-विचार आधुनिकता के आयाम पाने लगा था। उन्होंने अँग्रेजों की तरह इतवार की छुट्टी रखनी शुरू कर दी थी, एक दिन मथुरा तक जाकर एक दीवार घड़ी खरीद लाये थे। घर की बाहर की दरी में उन्होंने लकड़ी की खूँटी को कटवाया, मिट्टी की दीवार के अन्दर जो हिस्सा रह गया, उसमें एक पतली कील ठोंकी और घड़ी को उस कील पर लटका दिया।
…इसी पुस्तक से….
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