Author(s) — Narmedshwar
लेखक — नर्मदेश्वर
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 5.5 x 8.5 inches |
₹350.00 ₹270.00
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पति अब गाँजे में चरस और अफीम मिलाकर पीने लगे। उनका ननिहाल गाजीपुर के पास एक गाँव में था। उन दिनों वहाँ पोस्ते की खेती होती थी। भगिने के आग्रह पर उनके मामा दो-चार किलो पोस्त के दाने और मटर-भर अफीम अक्सर पहुँचा दिया करते थे। गाँजा पीने के बाद वे पोस्ते का हलवा खाना बहुत पसन्द करते थे। गाँजे का व्यापारी उनका गाँजा थोक भाव से पहुँचा जाता था। कस्बे के सेठों से वे विभिन्न शहरों से तरह-तरह के चीलम भी मँगवाया करते थे। उनके पास स्फटिक का भी एक चीलम था जिस पर अँधेरे में दम लगाने पर गुल नीचे सरकता हुआ दिखाई देता था।
उस साल जूनागढ़ अखाड़े का एक नागा संन्यासी बैठके के बेलवृक्ष के नीचे अपनी धुनी रमा रहा था। वह दिन-रात कुछ खाता-पिता नहीं था। वह सिर्फ चाय और गाँजा पीता था। उनके पति अपने को नागा साधु से भी बड़ा गँजेड़ी समझने की भूल कर बैठे। साधु को छकाने के लिए उन्होंने गाँजे में अफीम की मात्रा अधिक मिला दी। उस रात उन्होंने खाना नहीं खाया। सोये तो फिर सोये ही रह गये।
कुएँ की जगत पर धूप आ चुकी थी। कपड़े बदलकर चाची मानस-पाठ करने लगीं। अब वे मास-पारायण की जगह नवाह्न पारायण करने लगी थीं। केवट-प्रसंग पढ़ते हुए उनकी आँखों में आँसू भर आये। नदी के उस पार रेत पर खड़े राम की जगह उन्हें अपने पति नजर आये और केवट के चेहरे में उन्हें सरजू का चेहरा दिखाई दिया। पति असमंजस में थे। चाची उनके मन की बात भाँप गयी थीं। पति कह रहे थे, ‘बचपन से लेकर आज तक सरजू ने हमारी बहुत सेवा की है। राजा जी कहलाने के दम्भ में मैंने अपनी सारी जायदाद फूँक डाली। हाथ की मैल की तरह मुझे जायदाद जाने का कोई गम नहीं है। दु:ख की बात यह है कि मैंने सरजू की सेवाओं के बदले उसे कुछ भी नहीं दिया…।’
अपने पति को आश्वासन देते हुए चाची ने मन-ही-मन कहा, ‘सरजू को भेजकर मैं आपके वकील दोस्त मंगल बाबू को इतवार के दिन अपने घर बुलाऊँगी।
…इसी पुस्तक से…
चार दशकों से लेखन में निरन्तर सक्रिय नर्मदेश्वर हिन्दी कथा-साहित्य के सुपरिचित और प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं। मूल रूप से वे गाँव, किसान और आदिवासी जीवन के कथाकार हैं। इधर कई वर्षों से वे ‘परिकथा’ के ‘चौपाल’ स्तम्भ के लिए गाँव की कहानियाँ लिखते रहे हैं। इस संग्रह की ‘बाँसुरी’ कहानी को छोड़कर शेष सारी कहानियाँ ‘परिकथा’ के इसी स्तम्भ में प्रकाशित और चर्चित हो चुकी हैं। चौपाल ग्रामीण जीवन की गतिविधियों का अहम केन्द्र होता है जहाँ बैठकर लोग अपनी दैनन्दिन समस्याओं के साथ-साथ विभिन्न अनुभवों और विचारों को भी आपस में साझा करते हैं। विवादों के निपटारे से लेकर ग्रामीण विकास के विभिन्न पहलुओं पर निर्णय भी यहीं लिए जाते हैं। इस संग्रह की कहानियाँ इन्हीं ग्रामीण संवादों की कलात्मक प्रस्तुति हैं। इन कहानियों में गाँव अपने प्राकृतिक परिवेश, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों, वन-पर्वतों और नदी-नालों के साथ अपनी सम्पूर्णता में मौजूद है। ‘फन्दा’ और ‘धर्म संकट’ किसान-जीवन की कहानियाँ हैं। ‘कोरनटीन’ और ‘विदाई’ कोरोना काल की त्रासदी को अलग-अलग नजरिए से सामने लाती हैं। ‘रंगतन्त्र’ बड़े ही नये ढंग से नस्ल-भेद पर प्रहार करती है। ‘स्वेटर’ का डाकिया बाजार का मारा है तो ‘बाँसुरी’ का संगीत-प्रेमी अपनी कला को सामाजिक सरोकारों से जोड़ता है। इस संग्रह की सारी कहानियाँ गाँव में हो रहे बदलाओं की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। अछूते कथ्य और ताजा अनुभवों के बल पर ये कहानियाँ समकालीन कथा-लेखन में अपनी अलग पहचान रखती हुई दिखाई देती हैं।
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