Aadivasi Samaj aur Sahitya
आदिवासी समाज और साहित्य

325.00490.00

Editor(s) — Sneh Lata Negi
सम्पादक — स्नेह लता नेगी

| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 250 Pages | 2021 | 6 x 9 inches |

| available in HARD BOUND & PAPER BACK |

Description

स्नेह लता नेगी

जन्म : कानम, किन्नौर, हिमाचल प्रदेश।
शिक्षा : एम.ए., एम.फिल. और पीएच.डी., दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली, बी.एड. (आई.पी.वि.वि. दिल्ली)
प्रकाशित पुस्तकें :
I. विमुक्त जनजातीय जीवन संघर्ष और अस्मिता के प्रश्न संदर्भ : अल्मा कबूतरी।
II. मैत्रेयी पुष्पा की रचनाओं का लोकपक्ष।
III. आदिवासी भाषा, साहित्य और संस्कृति (किन्नौर और लाहौल स्पिति)
IV. आदिवासी साहित्य का स्त्री पाठ
2. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में शोध आलेख प्रकाशित।
3. अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में आमंत्रित वक्ता के रूप में साहित्यिक और अकादमिक योगदान।
4. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध-पत्र प्रस्तुत किया।
सम्मान :
1. महाश्वेता देवी राष्ट्रीय सम्मान, पल्लव काव्य मंच, उत्तर प्रदेश।
2. साहित्य सम्मान ग्वालियर साहित्य संस्थान मध्य प्रदेश।
संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

पुस्तक के बारे में

आदिवासी समाज को लेकर एक बाहरी नज़रिया बड़ा ही रोमानियत भरा रहा है। उनकी दृष्टि में वे किसी अजूबा से कम नहीं है। आदिवासी भाषा, संस्कृति, खान-पान और वेशभूषा उस की सांस्कृतिक विशिष्टता का परिचायक है। जिस पर हर आदिवासी व्यक्ति गर्व करता है। यही विशिष्टता बहारी समाज के लिए आकर्षण का कारण भी रहा और बहारी लोगों ने आदिवासियों को अपने ही चश्मे से देखना शुरू किया और उन पर अपने ही ढंग से लिखते बोलते रहे। क्या उन्हें हिन्दू धर्म व्यवस्था और मूल्यों के चश्मे से देखना न्याय संगत है? जिसके कारण आदिवासी समाज को लेकर भ्रांतियाँ मुख्यधारा के समाज में पैदा हुई, जिसने आदिवासी समाज और संस्कृति को क्षति पहुँचाई। आज का आदिवासी लेखन उन भ्रान्तियों को दूर करने में लगातार संघर्षरत है।
स्त्री, दलित और आदिवासी साहित्य के प्रति समावेशी भाव के बिना आज हिन्दी साहित्य अधूरा है। अधूरा इस रूप में हम हमेशा से ही पढ़ते सुनते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। अगर साहित्य समाज का दर्पण है तो स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य वंचित वर्गों की संख्या अधिक है। उनकी अभिव्यक्ति को साहित्य में सही जगह जब तक नहीं मिलेगी तब तक भारतीय समाज का दर्पण हम साहित्य को नहीं कह सकते। वह सिर्फ चुनिंदा वर्ग का दर्पण ही कहा जाएगा। साहित्य का कैनवस वृहत्तर स्तर पर होना चाहिए जिसमें हर जाति वर्ग और समुदाय को बराबरी का दर्जा मिले उसके साहित्य के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार ना हो यही साहित्य का धर्म है लेकिन सच्चाई इस के बिल्कुल विपरीत है । साहित्य में बराबरी के दर्जे के लिए हाशिए का साहित्यकार आज भी जूझ रहा है। ना तो उसे अच्छे प्रकाशक उपलब्ध हैं और ना ही उसका प्रचार प्रसार हो रहा है। जिसके चलते खासकर आदिवासी साहित्य को क्षति हुई है। तमाम बाधाओं के बावजूद भी आदिवासी रचनाकारों के निजी संघर्ष का ही परिणाम है जो आज आदिवासी साहित्य अपना एक नया स्वरूप गढ़ने में कामयाब हुआ है। जिससे आदिवासी समाज और साहित्य में महत्त्वपूर्ण और क्रान्तिकारी परिवर्तन देखा जा सकता है।
इस पुस्तक में आदिवासी समाज, साहित्य, संस्कृति और वहाँ के लोक साहित्य के माध्यम से आदिवासी समाज को जानने समझने की कोशिश की गई है। आदिवासी जीवन और उनके सरोकार क्या हैं? उनके सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति, दर्शन, लोक और कला उनके जीवन में कितना महत्त्व रखती है।

…इसी पुस्तक से

अनुक्रम

भूमिका
1. समकालीन आदिवासी लेखन चुनौतियाँ एवं सम्भावनाएँ वाहरु सोनवणे
2. आदिवासी संस्कृति – हरि राम मीणा
3. समकालीन आदिवासी लेखन – डॉ. गंगा सहाय मीणा
4. आदिवासी समुदाय : एक सैद्धान्तिक विवेचन – डॉ. रवि कुमार गोंड़
5. आदिवासी कला : परम्परा और समकालीन परिदृश्य – डॉ. सावित्री कुमारी बड़ाईक
6. आदिवासी कथा जगत, समाज और परम्पराएँ – डॉ. स्नेह लता नेगी
7. हिन्दी साहित्य में आदिवासी संघर्ष – डाॅ. मो. माजिद मियाँ
8. आदिवासी कहानियों में चित्रित-स्त्री एवं सामाजिक-बोध – डॉ. अनीता मिंज
9. रोज अपना-अपना युद्ध लड़ते आदिवासी – टेकचन्द
10. भूमंडलीकरण और आदिवासी (गोरबंजारा) साहित्य – सूरज बडत्या
11. आदिवासी समाज, साहित्य और संस्कृति – डॉ. सरोज कुमारी
12. आदिवासी साहित्य रचना का अदेखा संसार – डाॅ. वासवी किड़ो
13. समकालीन आदिवासी साहित्य-चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ – डॉ. नवज्योत भनोत
14. हिन्दी कहानियों में आदिवासी स्त्री का जीवन-संघर्ष – डॉ. अभिषेक पांडेय
15. आदिवासी समाज और वैश्वीकरण : अपनी जड़ों से उखड़ने की पीड़ा और नयी शताब्दी से अस्मिता का संघर्ष – विनोद कुमार विश्वकर्मा
16. रमणिका गुप्ता के साहित्य में आदिवासी स्त्री-चिन्तन के स्वर स्त्री-चिन्तन के स्वर – सरोजनी गौतम
17. समकालीन आदिवासी साहित्य लेखन : चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ – प्रेमी मोनिका तोपनो
18. आदिवासी विमर्श और मीडिया – डॉ. मधु लोमेश
19. आदिवासी साहित्य और संस्कृति – डॉ. डिम्पल गुप्ता
20. आदिवासी लोक – डॉ. मधु कौशिक
21. लाहुली लोक-साहित्य में कविता और कथा – डॉ. तुलसी रमण
22. आदिवासी लोकगीतों का सामाजिक- सांस्कृतिक सन्दर्भ – डॉ. सन्तोष जैन
23. छत्तीसगढ़ी आदिवासी संस्कृति में गोदना – डॉ. रामाशंकर कुशवाहा
24. पूर्वोत्तर की आदिवासी कहानियों में निहित भाव-बोध – डॉ. ज्योति शर्मा
25. अरुणाचल प्रदेश के गालो जनजाति : लोक-विश्वास और संस्कृति – सुश्री ङाने कायी, सुश्री गोरिक एते
26. आदि लोकगीतों एवं लोकगाथाओं की चुनौतियाँ एवं सम्भावनाएँ – आइनाम इरिंग
27. पूर्वोत्तर आदिवासी कहानियों में भाव-वैविध्य – डॉ. कुसुम लता
28. गालो जनजाति के लोक-कथाओं में स्त्री-चिन्तन का स्वर – रेबोम बेलो
29. वैश्वीकरण और आदिवासी समाज – प्रदीप तिवारी
30. The Drok-pa Tribals of Laddakh : A Vanishing Race? – P.P. Wangchuk
लेखकों के बारे में

 

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