Description
इन दिनों जब मैं “आधी रात का किस्सागो” या “खतरा” जैसी (या उनके आगे की) कहानियों तक पहुँचता हूँ, तो समकालीन दौर के बेहद चुनौतीपूर्ण यथार्थ का सामना बतौर एक लेखक और वृहत्तर सर्वहारा समाज का एक प्रतिनिधि होने के नाते करता हूँ। और इस यथार्थ से (वास्तविक जीवन में सामना कर चुकने के बाद), इसके कारणों से एक मुठभेड़ होती है, जो अपरिहार्य है। कहानी के जरिये एक आभासी गुरिल्ला लड़ाई से जनता के बीच पहुँचकर वास्तविक संघर्ष को ‘रियलाइज़’ करना एक महत्त्वाकांक्षा है। ऐसा विश्वास है कि, जो हर दौर के अपने दौर से टकराते रचनाकार की भी रहती है। एक नागरिक के रूप में हम किस प्रकार महज़ एक संख्या या इलेक्टोरल वोट की पर्ची मात्र तक ‘रिड्यूस’ होते गये हैं, कर दिये गये हैं! मानव के बीच बराबरी, मानवता और सामान्य बन्धुत्व और तमाम मूल्य हमारे समय की निरंकुश राजनीति ने हमारी आबादी के बहुलांश में खत्म कर दिये हैं। लोकतन्त्र की सभी संस्थाओं और अभ्यासों के बावजूद जो हमारे सामने मौजूद है, उसे लोकतन्त्र मानना अपने विवेक से छल करना होगा। इन्हीं के माध्यम से एक ऐसी राजनैतिक सत्ता लोगों के जीवन पर काबिज हो जाती है जो लोकतन्त्र के अर्थ को संख्या-तन्त्र में बदल देती है। लोकतन्त्र फिर वहाँ नहीं रहता, वह अधिसंख्यक का अधिनायकवाद होता है, उसकी अदम्य शक्ति से मदान्ध…
पूँजी और बाज़ार का प्रभुत्व, राजनीति को नाथ कर आम लोगों की जिन्दगियों को नफा-नुकसान की बायनरी से देखने की बेहया और निर्दयी दृष्टि पैदा करता है। इसे ही मूल्य के रूप में प्रस्तावित किया जाता और इसको स्थापित करने के लिए वास्तविक कलाओं, लोक-संस्कृतियों, पर्यावरण और आजीविका के प्रश्नों को लोक की चेतना से ही गायब करने की जुगत सदियों से अमल में लाये जाते उन्हीं ‘अचूक तरीकों’ से किया जाता है।
कथाकार, या कोई भी कलाकार या नागरिक ही, यदि अपने समय के इन यथार्थ और इसके अन्तर्विरोधों को, परिणामों का बोध कर इनसे लड़ने-भिड़ने और बदलने की, जिस किसी भी तरह से सम्भव हो, कवायद नहीं करता, तो वह अपना ऐतिहासिक दायित्व नहीं निभा रहा होता।
… ‘अपनी बात’ से …